Monday 9 January 2012

Bhoot Pret ki Kahaniya

कौन थी वह???

भादों का महीना. काली अँधियारी रात. कभी-कभी रह-रहकर हवा का तेज झोंका आता था और आकाश में रह-रहकर बिजली भी कौंध जाती थी. रमेसर काका अपने घर से दूर घोठे पर मड़ई में लेटे हुए थे. रमेसर काका का घोठा गाँव से थोड़ा दूर एक गढ़ही (तालाब) के किनारे था. गढ़ही बहुत बड़ी नहीं थी पर बरसात में लबालब भर जाती थी और इसमें इतने घाँस-फूँस उग आते थे कि डरावनी लगने लगती थी.
इसी गढ़ही के किनारे आम के लगभग 5-7 मोटे-मोटे पेड़ थे, दिन में जिनके नीचे चरवाहे गोटी या चिक्का, कबड्डी खेला करते थे और मजदूर या गाँव का कोई व्यक्ति जो खेत घूमने या खाद आदि डालने गया होता था आराम फरमाता था.
धीरे-धीरे रात ढल रही थी पर हवा का तेज झोंका अब आँधी का रूप ले चला था. आम के पेड़ों के डालियों की टकराहट की डरावनी आवाज उस भयंकर रात में रमेसर काका की मड़ई में बँधी भैंस को भी डरा रही थी और भैंस डरी-सहमी हुई रमेसर काका की बँसखटिया से चिपक कर खड़ीं हो गई थी. रमेसर काका अचानक सोए-सोए ही हट-हट की रट लगाने लगे थे पर भैंस अपनी जगह से बिना टस-मस हुए सिहरी हुई हटने का नाम नहीं ले रही थी.
रमेसर काका उठकर बैठ गए और बैठे-बैठे ही भैंस के पेट पर हाथ फेरने लगे. भैंस भी अपनापन पाकर रमेसर काका से और सटकर खड़ी हो गई. रमेसर काका को लगा कि शायद भैंस को मच्छर लग रहे हैं इसलिए बैठ नहीं रही है और बार-बार पूँछ से शरीर को झाड़ रही है. वे खड़े हो गए और मड़ई के दरवाजे पर रखे धुँहरहे (मवेशियों को मच्छर आदि से बचाने के लिए जलाई हुई आग जिसमें से धुँआ निकलकर फैलता है और मच्छर आदि भग जाते हैं) पर थोड़ा घांस-फूंस रखकर मुँह से फूंकने लगे.
रमेसर काका फूँक मार-मारकर आग तेज करने लगे और धुंआ भी बढ़ने लगा। बार-बार फूँक मारने से अचानक एक बार घांस-फूँस जलने लगी और मड़ई में थोड़ा प्रकाश फैल गया। उस प्रकाश में अचानक रमेसर काका की नजर उनकी बंसखटिया पर पड़ी। अरे उनको तो बँसखटिया पर एक औरत दिखाई दी। उसे देखते ही उनके पूरे शरीर में बिजली कौंध गई और इसके साथ ही आकाश में भी बिजली कड़की और एक तेज प्रकाश हुआ।
रमेसर काका डरनेवालों में से तो नहीं थे पर पता नहीं क्यों उनको आज थोड़ा डर का आभास हुआ। पर उन्होंने हिम्मत करके आग को और तेज किया और उसपर सूखा पुआल रखकर पूरा अँजोर (प्रकाश) कर दिया। अब उस पुआल के अँजोर में वह महिला साफ नजर आ रही थी, अब रमेसर काका उस अंजोर में उस औरत को अच्छी तरह से देख सकते थे।
 रमेसर काका ने धुँहरहे के पास बैठे-बैठे ही जोर की हाँक लगाकर पूछा, ''कौन है? कौन है वहाँ?"
पर उधर से कुछ भी प्रतिक्रिया न पाकर वे सन्न रह गए. उनकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था कि अब क्या करना है. वे मन ही मन कुछ बुदबुदाए और उठकर खड़े हो गए. उनके पैर न आगे अपनी खाट की ओर ही बढ़ रहे थे और ना ही मड़ई के बाहर ही.
अचानक खाट पर बैठी महिला अट्टहास करने लगी. उसकी तेज, भयंकर, डरावनी हँसी ने उस अंधेरी काली रात को और भी भयावह बना दिया. रमेसर काका पर अब सजग हो चुके थे. उन्होंने अब सोच लिया था कि डरना नहीं है क्योंकि अगर डरा तो मरा.
रमेसर काका अब तनकर खड़े हो गए थे. उन्होंने मड़ई के कोने में रखी लाठी को अपने हाथ में ले लिया था. वे फिर से बोल पड़े, "कौन हो तुम? तुमको क्या लगता है, मैं तुमसे डर रहा हूँ??? कदापि नहीं.' और इतना कहते ही रमेसर काका भी हा-हा-हा करने लगे। पर सच्चाई यह थी कि रमेसर काका अंदर से पूरी तरह डरे हुए थे। रमेसर काका का वह रूप देखकर वह महिला और उग्र हो गई और अपनी जगह पर खड़ी होकर तड़पी, "तूँ...डरता नहीं...है.SSSSSSSS न..बताती हूँ मैं तुझे." रमेसर काका को पता नहीं क्यों अब कुछ और बल मिला और डर और भी कम हुआ. वे बोल पड़े, "बता, क्या करेगी तूँ मेरा? जल्दी यहाँ से निकल नहीं तो इस लाठी से मार-मारकर तेरा सिर फोड़ दूँगा." इतना कहते ही रमेसर काका ने अपनी लाठी तान ली.
महिला चिल्लाई, "तूँ मुझे मेरे ही घर से निकालेगा? अरे मेरा बचपन बीता है इस मड़ई में. यह मेरा घर है मेरा. मैं बरसों से यहीं रहते आ रहीं हूं. पर पहले तो किसी ने कभी नहीं भगाया. यहाँ तक कि भइया (कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में पिताजी को भइया भी कहते हैं) ने भी." अब पता नहीं क्यों रमेसर काका का गुस्सा और डर दोनों शांत हो रहे थे. उनको अब लग रहा था कि उनके सामने जो महिला खड़ी है उसको वे जानते हैं, उसकी आवाज पहचानते हैं.
रमेसर काका अब लाठी पर अपने शरीर को टिका दिए थे और दिमाग पर जोर डालकर यह सोचने की कोशिश करने लगे कि यह कौन है? और अगर पहचान की है तो यह चुड़ैल के रूप में भयंकर, विकराल चेहरेवाली क्यों है? ओह तो यह बलेसरा बहिन (बहन) है क्या? अचानक उनके दिमाग में कौंधा. नहीं-नहीं बलेसरा बहिन नहीं हो सकती. उसे तो मरे हुए पच्चीसो साल हो गए. अब रमेसर काका अपने अतीत में जा चुके थे. उनको सबकुछ याद आ रहा था. उस समय उनकी बलेसरा बहिन 12-14 साल की थीं और उम्र में उनसे 3-4 साल बड़ी थी. चारा काटने से लेकर गोबर-गोहथार करने में दोनों भा-बहिन साथ-साथ लगे रहते थे. एक दिन दोपहर का समय था और इसी गड़ही पर इन्हीं आमों के पेड़ों पर गाँव के कुछ बच्चे ओल्हा-पाती खेल रहे थे. बलेसरा बहिन बंदरों की भांति इस डाली से उस डाली उछल-कूद कर रही थी. नीचे चोर बना लड़का पेड़ों पर चढ़े लड़के-लड़कियों को छूने की कोशिश कर रहा था. अचानक कोई कुछच समझे इससे पहले ही बलेसरा बहिन जिस डाली पर बैठी थी वह टूट चुकी थी और बलेसरा बहिन औंधे मुंह जमीन पर गिर पड़ी थीं. सभी बच्चों को थकुआ मार गया था और जबतक बड़ें लोग आकर बलेसरा बहिन को उठाते तबतक उसकी इहलीला समाप्त हो चुकी थी.
रमेसर काका  अभी यही सब सोच रहे थे तबतक उन्हें उस औरत के रोने की आवाज सुनाई दी. बिलकुल बलेसरा बहिन की तरह. अब रमेसर काका को पूरा यकीं हो गया था कि यह बलेसरा बहिन ही है. रमेसरा काका अब ये भूल चुके थे कि उनकी बहन मर चुकी है वे दौड़कर खाट के पास गए और बलेसरा बहिन को अंकवार में पकड़कर रोने लगे थे. उन्हें कुछ भी सूझ-बूझ नहीं थी. सुबह हो गई थी और वे अभी भी रोए जा रहे थे. तभी उधर कुछ लोग कुछ काम से आए और उन्हें रमेसर काका के रोने की आवाज सुनाई दी. उन्होंने मड़ई में झाँक कर देखा तो रमेसर काका  एक महिला को अँकवार में पकड़कर रो रहे थे.
उस महिला को देखते ही ये सभी लोग सन्न रह गए क्योंकि वह वास्तव में बलेसरा ही थीं जो बहुत समय पहले भगवान को प्यारी हो गई थीं. धीरे-धीरे यह बात पूरे गाँव में आग की तरह फैल गई और उस गड़ही पर भीड़ लग गई. गाँव के बुजुर्ग पंडीजी ने कहा कि दरअसल बलेसरा जब मरी तो वह बच्ची नहीं थी,  उसकी अंतिम क्रिया करनी चाहिए थी पर उसे बच्ची समझकर केवल दफना दिया गया था और अंतिम क्रिया नहीं किया गया था. उसकी आत्मा भी भटक रही है.
लोग अभी आपस में बात कर ही रहे थे तभी रमेसर काका बलेसरा बहिन के साथ मड़ई से बाहर निकले. बलेसरा गाँव के लोगों को एकत्र देखकर फूट-फूटकर रोने लगी थी. सब लोग उसे समझा रहे थे पर दूर से ही. रमेसर काका के अलावा किसी की भी हिम्मत नहीं हो रही थी कि वह बलेसरा के पास जाए.
बलेसरा अचानक बोल पड़ी, ""हाँ यह सही है कि मैं मर चुकी हूँ. पर मुझसे डरने की आवश्यकता नहीं है. मैं इसी गाँव की बेटी हूँ पर आजतक भटक रही हूं. मेरी सुध कोई नहीं ले रहा है. मैं इस गड़ही पर रहकर अन्य भूत-प्रेतों से अपने गाँव के लोगों की रक्षा करती हूँ. मैं नहीं चाहती हूँ कि इस गड़ही पर, इन आम के पेड़ों पर अगर कोई गाँव का व्यक्ति ओल्हा-पाती खेले तो उसे किसी भूत का कोपभाजन बनना पड़े. इतना कहने के बाद बलेसरा रोने लगी और रोते-रोते बोली, "मुझे एक प्रेत ने ओल्हा-पाती खेलते समय धक्का दे दिया था."
आगे बलेसरा ने जो कुछ बताया उससे लोगों के रोएं खड़े हो गए.....बलेसरा ने क्या-क्या बताया इसे जानने के लिए इस कहानी की अगली कड़ी का आपको इंतजार करना पड़ेगा. आखिर वो प्रेत कौन था जिसने बलेसरा को धक्का दिया था. इन बूत-प्रेतों की दुनिया कैसी है? यह सब जानने के लिए इस कहानी की अगली कड़ी का इंतजार करें...............नमस्कार.

23 comments:

  1. Wowwww nice story but iska dusra part kab ayega

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    1. sanjeevsinghmeerut@gmail.com

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    2. mai bhoot kahani pasnad hai

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    3. Hello friends

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  2. nice wating for 2nd one. plz update here

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  3. Iska dusra part jald update karo bhai

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  4. Very Nice Upload Another Part

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  5. whetting for next complete story http://shreasth.blogspot.in/

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  7. g ye pande g ki likhi hui story h
    waha se chura k apna nam de diya
    ye galt h bhaisab

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  8. If anyone is suffering from bhut,pret,ghost or any type of evil spirits & want to remove those permanent. email mrsaroj1234@gmail.com.

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  9. Don't create suspense .reveal its 2 nd part .I'm waiting it .

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  10. Don't create suspense .reveal its 2 nd part .I'm waiting it .

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  11. वाकई जबरदस्त और रोंगटे खड़े कर देने वाली एक भुतही कहानी

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